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बस यूँही……

Random thoughts at a Sunset..

The end of the journey is well within sight, is there any reason to feel vanity for some insignificant baubles that one has carefully collected over the course of a short and insignificant journey?

तकब्बुर: Vanity, घमंड; ख़फ़ीफ़: insignificant, नगण्य

By abchandorkar

Consultant Interventional Cardiologist, Pune, India

15 replies on “बस यूँही……”

wow….beautiful photo and words too….👌👌
जणू सूर्यास्ताच्या वेळेच्या समुद्राच्या सोनेरी लाटाच आकाशात प्रतिबिंबित झाल्या आहेत असे वाटते….👌👌

My attempt to write few lines…

जिन्दगी की श्याम का सहर से इक नाता हैं….
उन बीच के पलोंका सफर हर पल लुभाता हैं….

बनते बिगडते इन् लम्होन की तस्वीर….
बस हमारा आईना बन जाती है ….
उन उलझी सुलझी पहेलियोंके जबाब….
कभी हम अपने हाथों मे तो कभी हाथों की लकिरों मे…..
हमेशा धुंडते रहते हैं….. जिन्दगी के अंत तक…..

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व्वा फारच सुंदर फोटो. दाहक सूर्य पण सायंकाळी शीतल होतो व आपल्याला पण काही संदेश देतो. फारच छान लिहले आहे.

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तकब्बुर क्यूं ना खुद पे करे,
सफ़र सब का खफीफ़ ही सही,
चुनी हुई राहें हमारी अलग ही रही….

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Kshamajee,
Nice lines and nicely expressed.
Please allow me with some more lines with different perspective…

हर बिगड़ते पल में साथ तेरा,लम्हा हसीन बना देता है,
तुम हमसे जुदा कहां, तुम को ख़ुद में समा लिया है,
आईना भी जब भी देखे तेरी तस्वीर नजर आ जाती है,
तकब्बुर हमें साथ का तेरा,हर एक पहेली सुलझते है, मुकद्दर मेरा तुझ से जुदा कैसे,तेरे हाथ की लकीरों में ढूंढते है,
हर पल जो गुजारे संग तेरे, उसे ही तो हम जिंदगी कहते है….

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हर बिगड़ते पल में साथ तेरा,लम्हा हसीन बना देता है,
तुम हमसे जुदा कहां, तुम को ख़ुद में समा लिया है,
आईना भी जब भी देखे तेरी तस्वीर नजर आ जाती है,
तकब्बुर हमें साथ का तेरा,हर एक पहेली सुलझते है,
मुकद्दर मेरा तुझ से जुदा कैसे,तेरे हाथ की लकीरों में ढूंढते है,
हर पल जो गुजारे संग तेरे, उसे ही तो हम जिंदगी कहते है….

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