आज गणेश चतुर्थी का पावन दिवस है। शिवपुत्र गणेश को अनंत काल से सनातन धर्म में प्रथमेश याने पहली पूजा के अधिकारी के रूप में पूजा गया है। सभी विद्याओं के इष्टदेवता गजानन सभी विद्यार्थियों के परमदैवत रहें हैं।
आज उठते ही मैंने अपने आपसे संकल्प किया कि आज इस देवता का बहुत ही सुंदर स्तोत्र है, जिसे हम “गणपति अथर्वशीर्ष” के नामसे जानते हैं, जो अथर्ववेद में पढ़ा जा सकता है, और जिसे मुझे संघ की दयानंद शाखा में रहते हुए बचपन में पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उसका सरल भाषा में रूपांतर करूँ।
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती। तत्रापि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्॥
लेकिन आज यही देवों की भाषा जनसामान्यों से थोड़ी दूर चली गई है। मेरी असीम इच्छा है कि इस मधुरवाणी को अपना पुरातन महत्व पुनः प्राप्त हो। इसी दिशा में यह और एक छोटासा प्रयास- आप सभीसे प्रार्थना है कि आप मेरे इस प्रयासमें मुझे जरूर प्रोत्साहित करेंगे।
सर्वप्रथम प्रथमेश गणेशजी की वंदना!
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
हे गणेश जी! आप महाकाय हैं। आपकी सूंड वक्र है। आपके शरीर से करोडों सूर्यों का तेज निकलता है। आपसे प्रार्थना है कि आप मेरे सारे कार्य निर्विघ्न पूरे करें।
श्री गणपति अथर्वशीर्ष अत्यंत सुंदर, श्रवणीय और गेय स्तोत्र है। संस्कृत श्लोकों की रचना में एक स्वाभाविक लय और ताल रहता ही है। इसमें भी आपको वह दिखाई देगा!
।।श्री गणेशाय नम:।।
ॐ भद्रं कर्णेभि शृणुयाम देवा:।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।।
स्थिरै रंगै स्तुष्टुवांसस्तनुभि:।।
व्यशेम देवहितं यदायु:।।१।।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा:।
स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्र्यो अरिष्ट नेमि:।।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।२।।
ॐ शांति:। शांति:।। शांति:।।।
ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि।।
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्तासि।।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।।
त्वं साक्षादात्माsसि नित्यम्।
ऋतं वच्मि।। सत्यं वच्मि।।
अव त्वं मां।। अव वक्तारं।।
अव श्रोतारं। अवदातारं।।
अव धातारम अवानूचानमवशिष्यं।।
अव पश्चात्तात्।। अवं पुरस्त्तात्।।
अवोत्तरात्तात्।। अव दक्षिणात्तात्।।
अव चोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।
सर्वतो मां पाहिपाहि समंतात्।।३।।
त्वं वाङग्मयचस्त्वं चिन्मय:।
त्वं आनंदास्त्वं ब्रह्ममय:।।
त्वं सच्चिदानंदाS द्वितियोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।४।।
सर्व जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्व जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्व जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।।
सर्व जगदिदं त्वयि प्रत्येति।।
त्वं भूमिरापोनलोऽनिलो नभ:।।
त्वं चत्वारिवाक्पदानी।।५।।
त्वं गुणयत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत: त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधार स्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं।
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम्।।६।।
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।।
अनुस्वार: परतर:।। अर्धेन्दुलसितं।।
तारेण ऋद्धं।। एतत्तव मनुस्वरूपं।।
गकार: पूर्व रूपं अकारो मध्यमरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्य रूपं।। बिन्दुरूत्तर रूपं।।
नाद: संधानं।। संहिता संधि: सैषा गणेश विद्या।।
गणक ऋषि: निचृद्रगायत्रीछंद:।। गणपति देवता।।
ॐ गं गणपतये नम:।।७।।
एकदंताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नोदंती: प्रचोदयात।।
एकदंतं चतुर्हस्तं पारमंकुशधारिणम्।।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।।
रक्त गंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपूजितम्।।८।।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणम्च्युतम्।।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतै: पुरुषात्परम।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनांवर:।। ९।।
नमो व्रातपतये नमो गणपतये।। नम: प्रमथपतये।।
नमस्तेऽस्तु लंबोदारायैकदंताय विघ्ननाशिने शिवसुताय।।
श्री वरदमूर्तये नमोनम:।।१०।।
एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।। स: ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते।स सर्वत: सुख मेधते । स पंचम: पापाद्प्रमुच्यते।। ११।।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।।
सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापोद्भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।।
धर्मार्थ काममोक्षं च विंदती।।१२।।
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम।।
यो यदि मोहाददास्यति स पापीयान भवति।।
सहस्त्रावर्तनाद्यं यं काममधीते तंतमनेन साधयेत।।१३ ।।
अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति।।
चतुर्थ्यांमनश्चन्न जपति स विद्यावान् भवति।।
इत्यर्थर्वण वाक्यं।। ब्रह्माद्यारवरणं विद्यात् न विभेती कदाचनेति।।१४।।
यो दूर्वां कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।।
यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति।। स:मेधावान भवति।।
यो मोदक सहस्त्रैण यजति।
स वांञ्छित फलमवाप्नोति।।
य: साज्य समिभ्दर्भयजति, स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।१५।।
अष्टौ ब्राह्मणानां सम्यग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति।।
सूर्य गृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जपत्वा सिद्ध मंत्रोन् भवति।।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।। महापापात् प्रमुच्यते।महादोषात्प्रमुच्यते।।
स सर्व विद्भवति स सर्वविद्भवति। य एवं वेद इत्युपनिषद।।१६।।
ॐ शांति:। शांति:।। शांति:।।।
।। अर्थर्ववैदिय गणपत्युपनिषदं समाप्त:। ।
स्वयं गानसरस्वती लता मंगेशकरजी ने इसे अपने स्वर में पठण किया है। बहुत ही सुंदर आवाजमें इस पवित्र स्तोत्र को सुनने की अनुभूति कुछ और ही है। जरूर श्रवण करें और इस आनन्द को अर्जित करें। https://youtu.be/WnZjRCPGDHs?si=3H1NMmBfOquKj4lR
इस स्तोत्र का सरल भाषा में अर्थ बताने की कोशिश मैं (मेरी सीमित सोच की आधार पर) कर रहा हूँ। आपको उसमें त्रुटि दिखाई दे तो जरूर दर्शा दें। मुझे आप जैसे ज्ञानी लोगों से शिक्षा पाकर खुशी होगी। मुझसे कोई गलती हुई हो तो आप उदार होकर मुझे क्षमा करें। इसी क्षमायाचना के साथ ही प्रारंभ करता हूँ।
।।श्री गणेशाय नम:।।
ॐ भद्रं कर्णेभि शृणुयाम देवा:।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।।
स्थिरै रंगै स्तुष्टुवांसस्तनुभि:।।
व्यशेम देवहितं यदायु:।।१।।
अर्थात: ॐ, हे देव! जो कानों के लिए शुभ है वही सुनो, जो यज्ञ अनुष्ठानों के योग्य हैं, वहीं हम अपने आँखों से मंगलमय होते देखें। रोगमुक्त शरीर और स्वस्थ देह से आपकी स्तुति करते हुए जो प्रजापति ब्रह्म ने हमारी आयु तय की है, उसे पूरा करें।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा:।
स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्र्यो अरिष्ट नेमि:।।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।२।। ॐ शांति:। शांति:।। शांति:।।।
अर्थात : ऐश्वर्यशाली इंद्रदेव हमारा कल्याण करें, विश्ववेद और संसार के सभी पदार्थों में जो स्मरण है, वे पूषा (सूर्यदेव) हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा की समान गति को कोई रोक नहीं सकता, ऐसे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदों के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें। ॐ शांति:। शांति:।। शांति:।।।
ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि।।
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्तासि।।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।।
त्वं साक्षादात्माsसि नित्यम्।
अर्थात :- हे गणेश! आप को प्रणाम।
आप ही प्रत्यक्ष तत्त्व हो।
आप ही केवल कर्ता हो।
आप ही केवल धर्ता हो।
आप ही केवल हर्ता (दुख हरण करनेवाले) हो।
निश्चयपूर्वक आप ही इन सब रूपों में विराजमान ब्रह्म हो।
आप साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो।
ऋतं वच्मि।। सत्यं वच्मि।।
अर्थात : मैं ऋत (न्यायसंगत बात) कहता हूँ,
सत्य कहता हूँ।
अव त्वं मां।। अव वक्तारं।।
अव श्रोतारं। अवदातारं।।
अव धातारम अवानूचानमवशिष्यं।।
अव पश्चात्तात्।। अवं पुरस्त्तात्।।
अवोत्तरात्तात्।। अव दक्षिणात्तात्।।
अव चोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।
सर्वतो मां पाहिपाहि समंतात्।।३।।
अर्थात : आप मेरी रक्षा करो, आप वक्ता (बोलने वाले) की रक्षा करो, आप श्रोता (सुनने वाले) की रक्षा करो, आप दाता की रक्षा करो, आप धाता की रक्षा करो, आप आचार्य की रक्षा करो, शिष्य की रक्षा करो। आप आगे से रक्षा करो, पीछे से रक्षा करो, पूर्व से रक्षा करो, पश्चिम से रक्षा करो, उत्तर दिशा से रक्षा करो, दक्षिण से रक्षा करो। आप ऊपर से रक्षा करो, नीचे से रक्षा करो। आप सब ओर से मेरी रक्षा करो।
त्वं वाङग्मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वं आनंदास्त्वं ब्रह्ममय:।।
त्वं सच्चिदानंदाS द्वितियोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।४।।
अर्थात:- आप वाङ्मय हो, आप चिन्मय हो, आप आनंदमय हो, आप ब्रह्ममय हो, आप सच्चिदानन्द और अद्वितीय (जिसके आलावा कोई दूसरा नहीं) हो। आप ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो। आप प्रत्यक्ष कर्ता हो आप ही ब्रह्म हो।
सर्व जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्व जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्व जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।।
सर्व जगदिदं त्वयि प्रत्येति।।
त्वं भूमिरापोनलोऽनिलो नभ:।।
त्वं चत्वारिवाक्पदानी।।५।।
अर्थात :- सारा जगत आप ही से उत्पन्न होता है, सारा जगत आप से सुरक्षित रहता है, सारा जगत आप में लीन रहता है, सारा जगत आप ही में प्रतीत होता है । आप ही भूमि, जल, आकाश और अग्नि हो। आप चार प्रकार की वाणी हो (परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी)।
त्वं गुणयत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत: त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधार स्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं।
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम्।।६।।
अर्थात :- आप तीनों गुणों (सत्त्व, राज, तम) से परे हो। आप तीनों अवस्थाओं (जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति) से परे हो। आप तीनों देह (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) से परे हो। आप तीनों काल (भूत, वर्तमान, भविष्य) हो। आप मूलाधार चक्र में स्थित हो। तीनों शक्तियों (संकल्प शक्ति, उत्साह शक्ति और ज्ञान शक्ति) में आप ही हो। सभी योगी नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु, और रूद्र हो। आप इंद्र हो, आप अग्नि हो, आप वायु हो, आप सूर्या हो, आपही चंद्र हो। आप ही ब्रह्म और आप ही त्रिपाद भू, भुवः और स्वः हो।
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।।
अनुस्वार: परतर:।। अर्धेन्दुलसितं।।
तारेण ऋद्धं।। एतत्तव मनुस्वरूपं।।
गकार: पूर्व रूपं अकारो मध्यमरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्य रूपं।। बिन्दुरूत्तर रूपं।।
नाद: संधानं।। संहिता संधि: । सैषा गणेश विद्या।।
गणक ऋषि: निचृद्रगायत्रीछंद:।। गणपति देवता।।
ॐ गं गणपतये नम:।।७।।
अर्थात :- ‘गण’ के प्रथम शब्दांश (ग) का उच्चारण करने के बाद प्रथम वर्ण (अ) का उच्चारण करें, उसके बाद अनुस्वार (म्) का उच्चारण करें (जिससे ‘गम्’ बनता है), इसके बाद इसे अधचन्द्र से सुशोभित करें (गँ) और तार से इसे बाधाएँ (इस प्रकार “ॐ गँ” बनता है)। ग-कार प्रथम रूप है, अ-कार मध्य रूप है और अनुस्वार अंतिम रूप है। बिंदु उत्तर (ऊपरी) रूप है । अंत में नाद का संधान (योग) होता है, ये सभी आपस में मिल जाते हैं (“ॐ गँ” ये रूप बनता है )। यह गणेश विद्या है, गणक इसके ऋषि हैं, निचृद-गायत्री छन्द है, गणपति देवता है, ॐ गँ गणपतये नमः।
एकदंताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नोदंती: प्रचोदयात।।
अर्थात :- हम एकदन्त को जानते हैं; वक्रतुण्ड का ध्यान करते हैं। वह दन्ती (हाथीदाँत वाला) हमें जागृत करे।
एकदंतं चतुर्हस्तं पारमंकुशधारिणम्।।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।।
रक्त गंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपूजितम्।।८।।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणम्च्युतम्।।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतै: पुरुषात्परम।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनांवर:।। ९।।
अर्थात :- भगवान गणेश एकदन्त चार भुजाओं वाले है जिसमे वह पाश, अंकुश, दन्त, वर मुद्रा रखते हैं। उनके ध्वज पर मूषक हैं। वे लाल रंग से तेजस्वी हैं, लम्बोदर हैं, हैं लाल वस्त्र धारी हैं। रक्त चन्दन का लेप लगा है। वे लाल पुष्प धारण करते हैं। भक्तो के लिये अनुकम्पा रखते हैं जगत में सभी जगह व्याप्त हैं। श्रृष्टि के रचियता हैं। वह प्रकृति और पुरुष से भी पहले आविर्भूत हुए हैं और अच्युत हैं। जो इनका ध्यान सच्चे हृदय से करते हैं वे महा योगी हैं।
नमो व्रातपतये नमो गणपतये।। नम: प्रमथपतये।।
नमस्तेऽस्तु लंबोदारायैकदंताय विघ्ननाशिने शिव सुताय।।
श्री वरदमूर्तये नमोनम:।।१०।।
अर्थात :– व्रातपति, गणपति को प्रणाम, प्रथम पति को प्रणाम, एकदंत को प्रणाम, विध्नविनाशक, लम्बोदर, शिवतनय श्री वरद मूर्ती को प्रणाम।
एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।। स: ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते।स सर्वत: सुख मेधते । स पंचम: पापाद्प्रमुच्यते।। ११।।
अर्थात: जो इस अथर्वशीष का पाठ करता है वह विघ्नों से दूर होता है| वह सदैव ही सुखी हो जाता हैं वह पंच महापापों से दूर हो जाता है|
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।।
सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापोद्भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।।
धर्मार्थ काममोक्षं च विंदती।।१२।।
अर्थात: सन्ध्या में पाठ करने से दिन के दोष दूर होते है| प्रातः पाठ करने से रात्रि के दोष दूर होते है|हमेशा पाठ करने वाला दोष रहित हो जाता है और साथ ही धर्म, अर्थ, काम एवम मोक्ष पर विजयी बनता है|
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम।।
यो यदि मोहाददास्यति स पापीयान भवति।।
सहस्त्रावर्तनाद्यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत।।। ।।१३ ।।
अर्थात :- इस अथर्वशीर्ष को अयोग्य पुरुष को नहीं देना चाहिए। यदि कोई साधक मोहवश किसी अयोग्य व्यक्ति को यह मंत्र देता है, तो वह पापी बन जाएगा। इसका १ हजार बार पाठ करने से उपासक सिद्धि प्राप्त कर योगि बनेगा |
अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति।।
चतुर्थ्यांमनश्रन्न जपति स विद्यावान् भवति।।
इत्यर्थर्वण वाक्यं।। ब्रह्माद्यारवरणं विद्यात् न विभेती
कदाचनेति।।१४।।
अर्थात :- जो इस मन्त्र के उच्चारण के साथ गणेशजी का अभिषेक करता है उसकी वाणी उसकी दास हो जाती है, वह प्रखर वक्तृत्व का स्वामी बन जाता है| जो चतुर्थी के दिन उपवास कर जप करता है वह विद्वान बनता है, यह अथर्व ऋषि का कहना है| जो ब्रह्मविद्या को प्राप्त कर लेता है और वह भय मुक्त होता है |
यो दूर्वां कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।।
यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति।। स:मेधावान भवति।।
यो मोदक सहस्त्रैण यजति।
स वांञ्छित फलमवाप्नोति।।
य: साज्य समिभ्दर्भयजति, स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।१५।।
अर्थात :- जो दूर्वांकुरों के द्वारा गणपतिपूजन करता है वह कुबेर के समान समृद्ध बन जाता है, जो लाजा के द्वारा पूजन करता है, वह यशस्वी बनता है, मेधावी बनता है, जो सहस्र मोदकों के साथ पूजन करता है वह इच्छानुसार फल प्राप्त करता है| जो घी और समिधा के द्वारा हवन करता हैं वह सब कुछ प्राप्त करता है|
अष्टौ ब्राह्मणानां सम्यग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति।।
सूर्य गृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जपत्वा सिद्ध मंत्रोन् भवति।।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।। महापापात् प्रमुच्यते।महादोषात्प्रमुच्यते।।
स सर्व विद्भवति स सर्वविद्भवति। य एवं वेद इत्युपनिषद।।१६।।
ॐ शांति:। शांति:।। शांति:।।।
अर्थात :- जो आठ ब्राह्मणों को उपनिषद का ज्ञाता बनाता है वह सूर्य के सामान तेजस्वी हो जाता है| सूर्य ग्रहण के समय नदी तट पर अथवा अपने इष्ट के समीप इस उपनिषद का पाठ करे तो उसे मंत्र सिद्धी प्राप्त होती है | जिससे जीवन के सारे विघ्नों से मुक्ति प्राप्त होती है, वह पापों के गर्त से ऊपर उठ जाता है। सारे दोषों से मुक्ति प्राप्त होती है। वह सर्व विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर महाविद्वान हो जाता है। यह वेद का कथन है, इस प्रकार का यह उपनिषद है|ॐ शांति:। शांति:।। शांति:।।।
।। अथर्ववैदिय गणपत्युनिषदं समाप्त:। ।
इस प्रकार से अथर्ववेद के गणपति उपनिषद समाप्त हुआ।
आप सभी को गणेश जी की असीम भक्ति का लाभ मिले.
Painting of Ganesh by Veena Chandavarkar